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१५ अगस्त, १९५८
यह छोटी-सी वार्ता एक शुक्रवारको दी गयी थी । साधारणतया यह दिन 'धम्मपद' पढ़ने- के लिये नियत था ।
चूंकि आज श्रीअरविंदका जन्मदिन है, मैंने सोचा 'धम्मपद' पढ़नेको जगह कुछ और पडू जिसमे तुम्हें, रस आये ओर जो तुम्हें यह दिखाये कि श्रीअरविदने देवताओंके साथ हमारे संबंधका निरूपण कैसे किया है ।
तुम जानते ही हो, जानते हों न, कि भारतमें विशेषकर, देवताओंकी अनगिनत श्रेणियां हैं, सब विभिन्न स्तरोंपर है, कुछ मनुष्यके बहुत पास, दूसरी 'परम' के बहुत समीप, ओर बहुत-सी मध्यवर्ती ।
जो मैं तुम्हें बताना चाहती हू उसे तुम अधिक अच्छी तरह समझ सकोगे यदि मैं पौराणिक देवताओंका उल्लेख करूं (वैसे देवता जैसे हमन उस दिन चित्रपटपर देखे थे), और जो, मैं कहूंगी कि कई बातोंमें मनुष्य- से बदतर है (!) यद्यपि शक्तिके हिसाबसे वे अनतगुना महान् है ।
अधिमानसके देवता हैं जो पृथ्वीके महान् स्रष्टा है -- अभीतक । वेदके देवता हैं जिनका उल्लेख ऋषियोंने हमतक आनेवाली हर चीजमें किया है । और है अतिमानसके देवता जो पृथ्वीपर अभिव्यक्त होनेवाले है, यद्यपि अपने स्तरपर वे शाश्वत कालसे विद्यमान है ।
यहां श्रीअरविंद विशेषकर वैदिक देवताओंके बारेमें कह रहे हैं, पर अनन्य भावसे नहा', न ही बिलकुल निश्चित रूपसे । कुछ भी हो, ये देवता पौराणिक देवताओंकी अपेक्षा महान् हैं ।
श्रीअरविदने जो कहा है वह यों है : संक्षेपमें यह एक प्रार्थना है :
विस्तृत होओ मेरे अंदर, हे वरुण;
शक्तिशाली बनो मेरे अंदर, हे इंद्र; हे सूर्य, प्रदीप्त हों और भास्वर बनो; हे चन्द्र, शोभा-सुषमा और मधुरिमासे भर उठो । उग्र और भयंकर बने'।, हैं रुद्र; प्रचंड और वेगवान् बनो, हैं मरुत्; बलवान् और साहसी होओ, हे अर्यमा; विलासी और सुखदायी बने'।, हैं भग; कोमल, कृपालु, प्रेमिल और अनुरागी बनो, हे मित्र; उज्ज्वल और उद्भासक होओ, हैं उषा; हे निशे, भव्य और उर्वर बनो; हे जीवन, परिपूर्ण, प्रस्तुत और प्रफुल्ल होओ, हे मृत्यु, एक सौधसे दूसरे सौधतक मुझे ले चलो । इन सबको एक लय-तालमें बांध दो, हे ब्रह्मणस्पति । मैं इन देवताओंका दास न बनूँ, हे काली! '
तो, श्रीअरविंद कालीको बड़ी मुक्ति दायिनी शक्ति मानते है जो लगनके साथ प्रगति करनेकी ओर प्रवृत्त करती है ओर तुम्हारे अंदर बंधन नहीं छोड़ती जो तुम्हें प्रगति करनेसे रोके ।
मेरा ख्याल है कि छियानवे लिये यह अच्छा विषय होगा ।
(ध्यान)
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